झालावाड़ स्कूल हादसे पर भावुक शायरी
रविवार को गिरी होती तो बच जाती जानें,
मासूम दिलों में ना होता अब ये मातम छाए।
स्कूल का आंगन बना कब्रगाह अचानक,
इस हादसे ने ज़िंदगी से जीवन ही छीने जाए।
दीवार क्या गिरी, सपने बिखर गए,
मां के आंचल से चुपचाप लिपट गए।
स्कूल आए थे भविष्य बनाने को,
लौटे तो कफ़न में लिपटे हुए गए।
शिक्षा का मंदिर कब श्मशान बन गया,
किस्मत ने बच्चों से जीवन छीन लिया।
मासूम हँसी जो गूंजती थी कल तलक,
आज मातम में वो सब सन्नाटा बन गया।
कभी बैग था पीठ पर, अब बोझ बना लकड़ी का बक्सा,
मां की ममता जल गई, अब नहीं कोई हिस्सा।
स्कूल में जो बचपन मुस्कुराता था रोज़,
अब वहां सिर्फ सिसकियों का आलाप होता।
सुबह विदा किया था मुस्कुरा कर,
दोपहर को आई चुपचाप एक अर्थी घर।
मां की ममता पत्थर बन गई,
बच्चे का स्पर्श भी अब सपना बनकर रह गया।
बोलती आँखें, अब बंद हो चुकी हैं,
जो कहती थीं "मां जल्दी आऊंगा", वो थम चुकी हैं।
हादसा ऐसा कि पूरा गाँव रोया,
एक दीवार ने, न जाने क्या-क्या खोया।
दर्द के वो पल जो शब्दों में नहीं,
आंखों की नमी में छिपे हुए कहीं।
स्कूल अब शिक्षा नहीं शोक का स्थल बना,
मासूमियत की कब्र बनी ज़मीं।
सपनों की उम्र होती है छोटी नहीं,
पर हादसे पलों में सब लीलते वहीं।
आज भी दीवारें चुप हैं,
बस चीरती हैं माताओं की कराहती चीखें।
हर ईंट गवाही देती है आज,
कि इंसाफ ना मिला उन मासूमों को आज।
जो आए थे अक्षर जोड़ने को,
वही मिट्टी में मिल गए अनजान आगाज।
झालावाड़ की ज़मीन से चीखें अब भी आती हैं,
हर मां की गोद खाली नज़र आती है।
हादसे को तो गुज़रे हैं बस कुछ दिन,
पर ये ग़म ज़िंदगियों में सदियों तक बस जाती है।
जिन्हें स्कूल भेजा था उजाले के लिए,
वो लौटे अंधेरे में, वो भी सफेद कपड़े में।
हादसे ने ना सिर्फ ज़िंदगी छीनी,
बल्कि उम्मीद की रौशनी भी बुझा दी हमेशा के लिए।